रविवार, 27 नवंबर 2022

कविता: "आखिर कब तक"

 "आखिर कब तक"
आखिर कब तक हम इन जंजीरों में 
इस प्रकार बंधे रहेंगे 
और क्यों इनकी गोलियां सहेंगे 
मेरा भी हक़ है देश में रहने का 
इन आसमानों में उड़ने का 
आखिर कब तक हमपर अत्याचार 
करेंगे ये सब । 
मेरा भी हक़ है स्वतन्त्र होकर घूमने का 
अपनी मंजिलों को पाने का 
आखिर कब तक ये भूँखा रखेंगे हमें 
कोई फसल उगने को 
अपना नहीं तो गरीबों को ही सही 
आखिर कब तक हम इन जंजीरों में 
इस प्रकार बंधे रहेंगे 
मेरा भी हक़ है शिक्षा पाने का 
स्वच्छंद होकर लहराने का 
आखिर कब तक हम इन जंजीरों में 
इस प्रकार बंधे रहेंगे ।
कवी: सुल्तान कुमार , कक्षा: 8th 
अपना घर
 

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