रविवार, 18 अगस्त 2019

कविता : एक ख्वाईश

" एक ख्वाईश "

मेरी भी एक ख्वाईश है,
तुम चाहे इसे ज़िद समझो |
या फिर कोई अरमान समझो,
किसी का न था साथ |
मैं थी अकेली मासूम भोली और डरी,
हवा के खिलाफ थी |
बादल ने गरजते हुए दस्तक दी,
मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना ही न रहा |
फिर मैंने लम्बा सफर तय किया | |

कवि : राज कुमार , कक्षा : 10th , अपना घर

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