शनिवार, 14 जुलाई 2012

शीर्षक :- जिन्दगी कूड़ा है

शीर्षक :- जिन्दगी कूड़ा है 
लगता है जिन्दगी एक कूड़ा है....
जिधर देखो उधर फेका पड़ा है,
हर घर में देखो तो कूड़ा है....
बाहर देखो तो कूड़ा है,
लगता है जिन्दगी एक कूड़ा है....
जिन्दगी अब जिन्दगी नहीं रही,
अब जिन्दगी कूड़ा बन गई....
हर चौराहों पर एक जिन्दगी,
कूड़े कि तरह लेटा पड़ा है....
हर गली हर अस्पतालों में,
हर प्लेट फार्म में....
एक कूड़ा भूखें लेटे पड़ा है,
यूँ तो हम अक्सर बातें किया करते हैं....
उन भूखें लेटे कूड़ा के बारे में सोंचा करते है,
जब कुछ करने की बारी आती है तो....
अपना-अपना मुंह मोड़ लिया करते है,
लगता है जिन्दगी एक कूड़ा है....
ये मनुष्य इस सुन्दर सी वसुंधरा को,
कूड़ा बनाने लगा है पड़ा है....
ये मनुष्य की सोंच है जो इस वक्त,
अपने खाली डिब्बे को भरने में लगा पड़ा है....
लगता है जिन्दगी एक कूड़ा है,
ये मनुष्य कूड़े-कचरे को फिर से....
यूज लेंस बनाने में लगा पड़ा है,
पर असली कूड़ा तो हर जगह....
इधर-उधर मारे-मारे लुढ़का पड़ा है,
लगता है जिन्दगी एक कूड़ा है....
जिधर देखो उधर फेका पड़ा है,
कवि : सागर कुमार 
कक्षा : 9 
अपना घर 

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