शनिवार, 5 मार्च 2011

कविता: पता नहीं कैसी हवाएं चलें .......

पता नहीं कैसी हवाएं चलें......

इन हवाओं से कितना मजा आता ,
अगर गर्मी का दिन होता ....
ये तो प्रक्रति की देन है ,
पता नहीं कब कैसी हवाएं चल जाएँ .....
या तो इन हवाओं से खूब सारी धूल उड़ जाए ,
नहीं तो कीचड का भण्डार हो जाए ......
जिससे इस जग के लोग हो जाएँ परेशान ,
ये तो प्रक्रति की देन है .......
पता नहीं कब कैसी हवाएं चल जाएँ ,
या तो बदन में बीसों कपड़ों का ढेर हो .....
जिसे देखकर लोग हों परेशान,
ये तो प्रक्रति की देन है .....
लेखक :अशोक कुमार , कक्षा :८, अपना घर  

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