खूब चले अपने पैरो से ,
थकते तो किसी न कहते शाम को ....
एवं चुप रहते हर दम,
अपने दर्द को छिपाते अपनी आखों से......
कुछ न कहते निकलते आंसू तो,
फिर अगले दिन वही करते,
चलते अपने पैरो से....
पहुचाते मंजिल के किनारे,
कुछ संकट होता तो किसी से कुछ न कहते......
अपना फैसला खुद अपने आप करते,
अपने बदन से अपने दर्द को.....
अपनी आँखों में लाते,
लेकिन उसे आंसू के सहारे न निकालते.....
उस दर्द को मुस्कराहट से निकालते,
अपना दर्द अपने आप में बाँटते.....
किसी को दर्द महशुस न कराते .....
लेख़क अशोक कुमार कक्षा ८ अपना घर कानपुर
emotional
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता..अच्छी लगी.
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