गुरुवार, 28 जुलाई 2011

कविता - लुगाई के खातिर की कमाई

लुगाई के खातिर की कमाई 
 एक व्यक्ति ने की इतनी कमाई ,
जिससे ला सके वह एक लुगाई......
 एक दिन बैठा लगा सोचने ,
 उसी दिन गया वह लुगाई देखने .....
 लुगाई उसको पसंद आई ,
 तय हो गयी उन दोनों की सगाई,
जब वापस घर को था लौटना ......
 उसी क्षण हुई उसके संग एक दुर्घटना ,
 दुर्घटना में उसने एक हाथ ,एक पैर ,एक आंख गंवाई.....
ठीक  होने के लिए उसने सारी सम्पति लगाई,
 लुगाई को तब पता चला ......
 उसने तोड़ दिया उससे रिश्ता,
सारा जीवन रह गया बेचारा  कुंवारा घिसता...... 
 जितना गम नहीं था उसे अपने अंग खोने से ,
उससे ज्यादा गम  था उसकी सगाई न होने से..... 
   

लेखक - आशीष कुमार , कक्षा  - ९,  
अपना घर कानपुर               

1 टिप्पणी:

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

शरीर के अंग खोने का दुख बहुत बड़ा दुख है....
पर उससे बड़ा सगाई न होने का.....कैसे हो गया..